रूदाली प्रथा


 


 


 


 


 


आज भले सामंतवादी व्यवस्था का दौर नहीं रहा हो लेकिन, आज भी राजस्थान में तथाकथित सामंतों के यहां कोई मर जाए तो रुदालियों को दहाड़ मार-मारकर रोना पड़ता है, वरना उनकी सामत आ जाती है। यह रुदन का अभिनय रुदालियों को काले कपड़ों में करना होता था। क्योंकि यह धारणा थी कि काला रंग यमराज का पसंदीदा रंग है। 
दुख का प्रदर्शन करने वाली ये रुदालियां सामंतवादी प्रथा का प्रतीक थीं। जातिच्युत माने जाने के कारण किसी भी मांगलिक व शुभ प्रसंग पर इनका साया भी ठाकुर या जमींदार की हवेली पर पड़ने नहीं दिया जाता था। दूसरों की मौत पर वेदना के आंसू बहाकर वे अपने पापी पेट की अग्नि को शांत करती थी। 
समाज में उनको सदैव ही हीन नजरों से देखा और उनके साथ ऐसा ही क्रूर-हीनता से भरा व्यवहार किया जाता था। इनके घर भी गांव की सरहदों के बाहर बने होते थे। दरअसल दौर सामंतवादी व्यवस्था का हुआ करता था। सिर मालिक की चौखट पर झुके हुए होते थे और हाथ हुक्म को सलामी ठोंकने में व्यस्त रहते थे। नजरें तो दूर की कौड़ी सिर भी हुक्म, अन्नदाता और माई-बाप से बातचीत करने के लिए ऊपर उठने की ज़हमत नहीं किया करते थे। कहा जाता है प्राचीन समय में मान्यता थी कि, ''उच्चकुल की महिलाओं का आम लोगों के सामने आंसू बहाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है।'' यदि उनके पति की मृत्यु भी हो जाए तो भी उन्हें अपने दुख को दबाए रखना पड़ता था। इसलिए उनकी वेदना दर्शाने के लिए रुदालियों को बुलाया जाता था। नाटकीयता और कल्पना से परिपूर्ण रुदालियों के ये झूठे आंसू ही ठाकुर की मौत के शोक को व्यक्त करते थे और बताते थे कि ठाकुर की मौत पर इन रुदालियों को कितना गम और गहरा आघात पहुंचा है। 
सन् 1993 में कल्पना लाजमी ने बांग्ला की विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास ''रुदाली'' पर एक फिल्म भी बनायी थी। इस फिल्म का लता मंगेशकर और भूपेन हजारिका की आवाज में गाया गया एक गीत ''दिल हूम-हूम करें, घबराए'' इन रुदालियों के निजी दुख की अभिव्यक्ति प्रकट करता है।


आज भी राजस्थान में दलित महिलाओं को जबरन अपने दुख में रूलाया जाता है। ऐसी स्थिति में कई दिनों तक तथाकथित सामंतों के घरों पर जाकर दलित महिलाओं को मातम मनाना पड़ता है। इन रुदालियों का रुदन आज भी राजस्थान के आदिवासी और पिछड़े जिलों में गूंजता है। अभी भी यहां सैकड़ों रुदालियां हैं। राजस्थान के सिरोही जिले में दर्जनों ऐसे गाँव मिले है जहां आज भी दलित महिलाएं ऊंची जाति के लोगों के घर जाकर किसी की मौत होने पर मातम करना पड़ता है। सिरोही जिले के रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, वड़वज, उडवारिया, मारोल, पामेरा में रुदालियों के सैकड़ों परिवार रहते हैं। यह जातिवाद व्यवहार सिर्फ दलित महिलाओं के साथ ही नहीं, बल्कि दलित पुरुषों को भी ऐसा ही दंश झेलना पड़ता है। 
अगर किसी कथित सामंतों के यहां कोई मर जाता है तो पूरे गांव के दलितों को सिर मुंडवाना पड़ता है। साथ ही दलित परिवार के बच्चे से बूढ़े तक का जबरन मुंडन करवाया जाता है। यदि कोई दलित रोने न जाए या दलित सिर न मुंडाए तो उस परिवार के लिए उत्पीड़न का दौर शुरू हो जाता है। माना जाता है कि रुदाली की यह परम्परा राजस्थान में करीब दो सौ साल से है। चूंकि इस बारे में कोई कानून नहीं है इसलिए यह परम्परा जारी है। लोक मान्यता है कि रोने से कमजोरी की आशंका रहती है और चेहरा विकृत हो जाता है इसलिए अपने चेहरे की सुंदरता बचाये रखने के लिए गरीब और दलित जातियों को यह काम दे दिया गया।

बहरहाल ये घोर विडंबनाजनक है कि आज भी आजाद के सत्तर साल बाद देश के एक हिस्से में कुप्रथा के नाम पर रुदालियों को बेमन से किसी पराये के लिए आंसू बहाने के लिए विवश होना पड़ रहा है। क्या इस तरह दूसरों की मौत पर रोने से अपनों का अपने के प्रति शोक व्यक्त हो जाता है? 
लेकिन एक लोकतांत्रिक मुल्क में दलितों को संविधान प्रदत्त मिलने वाले क्षमता और समानता जैसे अधिकारों का ये सीधा-सा हनन ही है। आरक्षण की खिलाफत करने वाले कई लोग इस तरह के जातिवादी दंश को दरकिनार कर देते है। जो कि उचित नहीं है। 


ज़रूरत है कि एक प्रजातांत्रिक मुल्क में गलत मान्यताओं और कुप्रथाओं से मुक्ति की दिशा में पहल हो और प्रताड़ित तबके को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए प्रयत्न किया जाये।



-अश्विनी भियाण्या  
मुमाना, टोंक
9462119625


 


फोटो गुगल से साभार