गैरों पर करम अपनों पर सितम...!




 

 


"गैरों पर करम अपनों पर सितम ए जानेवफ़ा ये जुल्म न कर...!

रहने दे अभी थोड़ा सा भरम ए जानेवफ़ा ये जुल्म न कर, ये जुल्म न कर...!!’’ 

1968 में देशभक्ति के रंग में सराबोर फिल्म ‘‘आँखें’’ के इस गाने में साहिर लुधियानवी के ये साधारण से भाव दुनियादारी के अपनों के ही प्रति बेरुख़ी को बड़ी सहजता से बयाँ करते हैं। यदि हम किसी विशेष स्तर पर पहुँचते हैं तो या तो यह हमसे हो जाता है या फिर हम हमारे अतीत से इस तरह से भयभीत होते हैं कि उसकी परछाई से भी दूर भागने के प्रयास में हम ऐसा करने के बहाने ढूँढ लेते हैं। ऐसी स्थिति में हम हमारे अतीत की हर उस चीज से दूर रहने का प्रयास करते हैं जो हमें हमारे पिछड़ेपन में लिपटे अतीत की याद दिलाती है। लेकिन क्या हमारा अतीत वास्तव में ही हमारी उन्नति में इतना बाधक हैं जिसे हम हमेशा के लिए अपने जीवन से काट कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं? क्या हमारा अतीत इतना शर्मनाक है जो हमें अपनों से इस कदर ज़ुदा कर देता है कि हम उनसे दूर ही नहीं भागते वरन् उनसे घृणा तक करने लग जाते हैं? और तो और यह घृणा इस स्तर तक पहुँच जाती है कि हम गैरों के साथ मिलकर अपनों पर ही जुल्म ढाने लग जाते है!

आप किसी भी स्तर के नागरिक हैं लेकिन यह तथ्य कमोबेश हम सभी पर लागू होता है। वैसे तो हम इसे दुनिया-जहाँन की रीति समझ कर नज़रअंदाज़ कर सकते हैं परन्तु जब अनुसूचित समाज जैसे निहायत ही पिछड़े समाज की बात आती है तो इस तबके के तथाकथित सभ्य व अग्रिम पंक्ति में आ चुके सम्भ्रान्त अनुसूचितगण अपने छिटकाए हुए पिछड़े समाज-बन्धुओं के साथ जब गैरों से भी बदतर व्यवहार करते नज़र आते हैं तो इसका आघात दूर तक महसूस किया जाता है। इस बेरुखी का कारण क्या है, यह हम स्वयं भी काफी हद तक जानते हैं पर इस पर चर्चा करने से डरते हैं, ‘‘कहीं हमारी भी पोल न खुल जाए!’’ 

दरअसल अनुसूचित धनाढ्य गरीब अनुसूचितों के लिए मुसीबत भी बन रहे हैं। यहाँ हम अमीर अनुसूचितों द्वारा गरीब अनुसूचितों के शोषण की ही बात नहीं कर रहे हैं बल्कि अमीर अनुसूचितों द्वारा अनजाने में ही गरीब अनुसूचितों पर सवर्ण समाज द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों के समर्थन की बात कर रहे हैं। जो अनुसूचित वर्ग आरक्षण बूटी का रसपान करके आगे बढ़ गया है उसने एक तो अपने चारों ओर अन्य पिछड़े अनुसूचितों के विरुद्ध एक ‘‘लौह-प्राचीर’’ खड़ी कर ली है, दूसरी अपने रहन-सहन, खान-पान, मेल-जोल इत्यादि के तरीकों में इतना उच्च स्तरीय परिवर्तन कर लिया है कि आम अनुसूचित की मजाल है जो उसके आस-पास भी फटक सके। तीसरा, नवधनाढ्य बनते-बनते उसने ऐसे-ऐसे महल-अटारी, गाड़ी-घोड़े, ऐशो-आराम के सामान (चाहे कर्जा़ लेकर ही क्यों न खरीदा हो!) प्रदर्शनस्वरूप जमा कर लिए कि सवर्ण वर्ग की आँखो की किरकिरी तो बना ही उन्हें यह कहने का अवसर भी दे किया कि ‘‘देखो, अब तो ये लोग भी अमीर हो गए, मुख्यधारा में आ गए, हमारी बराबरी करने लग गए, अब इन्हें आरक्षण की क्या आवश्यकता है, आरक्षण समाप्त करो!’’ ऐसा नहीं है कि वे भी हकीकत से अन्जान हैं, उन्हें भी सब पता है कि शानो-शौकत वाले अनुसूचित कम ही हैं और इनका वास्तविक पिछड़े अनुसूचित वर्ग से कोई खास लेना देना नहीं है लेकिन प्राचीन कचहरीपरस्त कहावत है कि ‘‘कानून सबूत माँगता है’’ और धनाढ्य अनुसूचित ऐसे ही चलते फिरते सबूत उनके पास हैं यह सिद्ध करने के लिए ‘कि सभी आरक्षित वर्ग के लोग अमीर हो गए हैं।’ 

यदि अग्रणी व धनवान अनुसूचित वर्ग को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें एक श्रेणी क्रूरतम श्रेणी है तथा इसमें वे भद्र जन आते हैं जो अपने समाज के निरीह व सर्वहारा वर्ग के प्रति न तो संवेदनशील हैं और न ही इनके शोषण से कोई गुरेज़ करते हैं। इस श्रेणी के अधिकतर प्रतिनिधि अपने परिवार की दूसरी, तीसरी या चौथी पीढ़ी से आते हैं। इन्होंने न तो कभी गरीबी देखी है और न ही कभी अनुसूचित होने की पीड़ा झेली है। ये अन्य दुर्भाग्यशाली अनुसूचितों के शोषण को न तो बुरा मानते हैं और न ही उनसे कोई हमदर्दी ही रखते हैं। ये गरीबी की खुद ही परिभाषा गढ़ते हैं और उसे अर्थशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों में ढाल कर स्वसंतोष के लिए अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से कैसे अन्जान बने रहना है इसके रास्ते तलाश ही लेते हैं। कुछ प्रथम पीढ़ी के महादम्भी अनुसूचित अग्रणी भी इसी श्रेणी में आते हैं जो अपने समस्त प्रगति के सोपान अपने आपको ही समर्पित करते हैं। इन दोनों ही तरह के भद्रजनों की अपेक्षा कोई सवर्ण तो अनुसूचित-परोपकार की बात कर लेगा लेकिन इनसे अनुसूचित विमर्श की या उद्धार की उम्मीद करना निरर्थक है। आप इन्हें न तो अनुसूचित होने का अहसास ही करा सकते हैं और न ही इनसे लाख ढोल पीटने के बावजूद अनुसूचितों के लिए किसी प्रकार के समर्थन की ही उम्मीद कर सकते हैं। इनकी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में प्रवेश लगभग असम्भव है। पहले इनके कुत्तों को साक्षात्कार दो, फिर मुख्य द्वार पर ही खड़े-खड़े इनको दूर से ही साक्षात्कार दो फिर भी आपको प्रवेश मिल जाए तो आपका दिन अच्छा है। फिर आपको पानी के लिए पूछ लिया तो आपकी किस्मत खुदा ने खुद लिखी है! हाँ, यदि इन्हें अपना कोई उल्लू सीधा करना हो तो (खासकर चुनावी टिकट के माहौल में) फिर इन्हें अनुसूचितों से सारे रिश्ते याद आ जाते हैं! इस श्रेणी की प्रवृत्ति के अनुसूचित धनाढ्य वर्ग से कोई उम्मीद करना बड़ा जोखिम भरा सिद्ध हो सकता है जब तक कि वे अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागृत ना हो जाएँ!

दूसरी श्रेणी ऐसे अनुसूचित धनाढ्यों की है जिन्हें समस्त समाज की फिक्र है, सब अच्छी बुरी बातें इन्हें पता हैं, ये महा-ज्ञानी हैं तथा अपना ज्ञान बाँटने में इनको कोई एतराज नहीं है बल्कि ज्ञान बाँटने पर इनको अपने ऊपर बड़ा गर्व है। अनुसूचित विमर्श के लिए आप इनसे मिलिए, ये आपका बड़ी ही गर्म-जोशी से स्वागत करेंगे। फिर समस्या क्या है? समस्या यह है कि ये आपको टरकाने में माहिर हैं। ये धरातल पर किसी भी प्रकार से समाज का कोई भला कर जाएँ ऐसा हो नहीं सकता। इन्हें सामाजिक स्तर पर भरपूर सम्मान चाहिए, खूब ज्ञान बाँटने के लिए मंच चाहिए परन्तु कुछ भी ठोस कदम उठाना हो तो ये बगलें झाँकने लगते हैं या बचने के गली और बहाने ढूँढते नज़र आते हैं। ये अधिकतर अच्छी बातों के लिए हमेशा तैयार रहते हैं बस अन्टी से गिन्नी खर्च नहीं होनी चाहिए और इन्हें मुफ्त में नेतृत्त्व का मौका मिलना चाहिए। चूँकि इस श्रेणी पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं है अतः ये पहली श्रेणी से भी खतरनाक श्रेणी है क्योंकि पहली श्रेणी वालों का इतना विश्वास तो है कि वे आप से हर हाल में दूरी बनाना चाहते हैं परन्तु दूसरी श्रेणी आपके पास आकर आपको घुन की तरह खाने में सक्षम है। ये कुछ नहीं करते लेकिन श्रेय इनको सारे अच्छे कामों का चाहिए। पहली श्रेणी के अनुसूचित धनाढ्य तो अपने सवर्ण ‘स्टेटस’ को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते लेकिन दूसरी श्रेणी के अनुसूचित धनाढ्य तो सवर्णों के पेट में घुस कर अपने ही अनुसूचित समाज के प्रति खिन्नता का प्रदर्शन करने में भी गुरेज़ नहीं करते। सवर्णों के आगे अपने अनुसूचित बन्धुओं के प्रति इनके ये उद्गार आम बात है जैसे- ‘‘क्या करें, मैं तो खूब समझाता हूँ, साले, सुधरते ही नहीं हैं, अनुसूचित के अनुसूचित ही रहना चाहते हैं!’’ इनके इन उद्गारों से सवर्ण मित्र मंद-मंद मुस्काते हैं और मन ही मन इनकी तुच्छ बुद्धि पर दया करते हैं।

अनुसूचित धनाढ्यों की तीसरी ऐसी श्रेणी है जो एक आदर्श श्रेणी है जैसा कि सभी प्रगतिशील अनुसूचितों को होना चाहिए। यदि किसी भी यत्न से वे आम अनुसूचित नागरिक से थोड़े-बहुत ऊपर उठ गए हैं, आगे बढ़ गए हैं तो वे अपना कर्त्तव्य उन अभागों के प्रति नहीं भूले हैं जो या तो अवसर के अभाव में या विपरीत सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण वह हासिल नहीं कर पाए जो कुछ अग्रणी अनुसूचित कर पाए हैं। इस श्रेणी के  सबको साथ लेकर चलने की अपनी जिम्मेदारी से कभी मुँह नहीं मोड़ते। ये संजीदा, तर्कसंगत व बुद्धिसंगत बातों व इन्सानों के हामी होते हैं। इनके इन गुणों के कारण सवर्ण वर्ग के संजीदा लोग भी इनकी प्रशंसा करने में गुरेज नहीं करते। ये अनुसूचित संगठनों के तर्कसंगत और रचनात्मक कार्यकलापों से जुड़ने के लिए या अपना योगदान देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। इनको यह ज्ञान है कि सवर्ण वर्ग कभी अनुसूचित और आरक्षित वर्ग का बिना किसी दूरदर्शी उद्देश्य के समर्थक नहीं हो सकता तथा अनुसूचितों की सामाजिक समस्याओं का एकमात्र हल अनुसूचित-एकता में ही निहित है। कुछ ‘‘इंसानी’’ अनुसूचित सार्वजनिक जीवन में भाग लेते हैं तथा कुछ पर्दे के पीछे से अपना काम करना पसंद करते हैं। इनकी महत्त्वाकांक्षा अनुसूचितोद्धार में निहित है। ये स्वयं की प्रगति के साथ-साथ सामाजिक प्रगति को भी अपना ध्येय लेकर चलते हैं। जरुरतमंदों के लिए जितना बन पड़ता है उतना करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। अपने जैसे प्रगतिशील ‘‘इंसानी’’ अनुसूचितों का सम्मान करने व उनके विचारों को प्रसरित करने में सदैव ही गर्व महसूस करने हैं। अच्छे इंसानों की प्रशंसा में ये कोई कंजूसी नहीं बरतते। लेकिन इनमें भी एक बुराई है कि ये ‘‘भैंसा’’ व ‘‘भेड़िया’’ श्रेणी के अनुसूचितों की खुल कर भर्त्सना नहीं करते या यूँ कहें कि इनकी अच्छाई की कीमत समाज चुका रहा है।

उपरोक्त कटु विवरण हिन्दी साहित्य में भी विभिन्न लेखकों द्वारा आदमी की फितरत को समझाने के लिए कई बार हुआ है तथा यहाँ भी अनुसूचित धनाढ्यों व नवधनाढ्यों के विवरण के लिए इसे उपयुक्त माना गया है। इस विवरण से प्रथम दो श्रेणियों के नुमाइन्दों में या तो सदैव की भाँति कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी ही नहीं अन्यथा वे ये उद्गार प्रकट करेंगे कि-

‘‘तो क्या धनवान अनुसूचित फिर से गरीब हो जाएँ?’’ ‘‘अपना इतने परिश्रम (आरक्षण का जिक्र नहीं, क्योंकि अधिकतर आरक्षित नौकरीपेशा यह कहते नज़र आएँगें कि उनका चयन तो ‘सामान्य’ की वरीयता के आधार पर हुआ है!) से कमाया हुआ रुतबा क्या यूँ गरीबों में बाँटते फिरे?’’ या ‘‘आप चाहते हैं हम अब भी फटे-हाल जिएँ और अपने बच्चों को घटिया सरकारी विद्यालयों में पढ़ा-पढ़ा कर ठोट बनाएँ?’’ 

नहीं, नहीं आप कुछ ज्यादा ही बुरा मान गए! लेकिन क्या हमारे रहन-सहन की कोई दिखावा रहित आचार-संहिता नहीं हो सकती? यदि नहीं, तो फिर आरक्षण के दमन के साथ ही अनुसूचित समाज का 70 वर्ष पूर्व पहुँचना तय है। सवर्ण वर्ग के अर्द्धशिक्षित युवा वर्ग में आरक्षण के प्रति जो जहर सवर्ण वर्ग का प्रौढ़ व कुटिल वर्ग भर रहा है उसकी पराकाष्ठा अत्यन्त भयावह होने की पूर्ण सम्भावना है। अतः उस भयावह स्थिति को टालने के लिए येन-केन-प्रकारेण धनवान बनने की अंधी दौड़ में आगे निकल गए अनुसूचित धनाढ्यों से अपेक्षा है कि वे अपने पीछे छूटे निरीह सर्वहारा वर्ग को भी सम्बल दें और साथ लेकर चलने का प्रयास करें चाहे तन-मन-धन किसी भी प्रकार से सम्भव हो। 

 

-सीताराम स्वरूप

 

फोटों गुगल से साभार