अनुसूचित जाति की जितनी भी जातियॉ है उन सभी की महासभाओं के उद्देश्य तकरीबन एक जैसे ही होते हैं जैसे कि समाज में अम्बेडकरी विचार धारा का प्रचार-प्रसार करना समाज का उत्थान तथा कुरीतियों से निजात दिलाना...
16 दिसम्बर 2012 को जयपुर में ”विप्र फाउण्डेशन“ के तत्वावधान में विप्र महाकुंभ का आयोजन किया गया जिसमें हर रंग के ‘भूदेव’ ने शिरकत की। मंच पर मुरली मनोहर जोशी (बी.जे.पी.) उपस्थित थे तो उनकी बाजू में सी.पी.जोशी (कांग्रेस) विचार मग्न दिखाई दिए। उस मंच पर आकर सभी रंग चाहे भगवा हो, हरा हो या फिर नीला एक ही रंग में रंग गए- ब्राह्मण रंग। विप्रजनों ने पूरे जयपुर शहर को परशुराम के पोस्टरों, बैनरों तथा होर्डिंग्स से पाट दिया। परशुराम की पीठ पर धनुष एवं तरकश सजा हुआ था तो हाथ में फरसा (परशु) आतंकित कर रहा था। हर बैनर/पोस्टर पर लिखा था ”मैं ब्राह्मण हूॅं“।
ब्रह्म जानाति सः ब्राह्मणए धारयते इति धर्मा ।
अर्थात धर्म को धारण करने वाला ब्रह्मज्ञान से परिपूर्ण ही ब्राह्मण है। जो व्यक्ति जन्म से ही पवित्र, नरश्रेष्ठ समस्त प्राणियों का ईश्वर, धर्म का रक्षक, संसार की सभी चल एवं अचल सम्पत्तियों का स्वामी हो ऐसे ब्रह्मदेव पर कौनसी विपत्ति आ गई है कि उसे दान में मिले धन को खर्च करके विज्ञापन के माध्यम से परशुराम के मुख से गैर ब्राह्मणों को यह बताना पड रहा है कि वह ब्राह्मण है। भूदेव कोई भी काम भावनाओं में बहकर तो करता नहीं है फिर ऐसा कौनसा कारण है कि उसने पिछले दशक से गा बजाकर डंके कि चोट पर ब्राह्मण सम्मेलन लगाना शुरु कर दिया है और खुले में अपनी जाति को संगठित करने की बात कर रहा है। पहले भी ऐसे सम्मेलन होते थे परन्तु ये गुप्त रुप से आयोजित किए जाते थे।
इतिहास की अधिक खुदाई न करते हुए हमारे लिए इतना जान लेना काफी है कि अंग्रेजों के आगमन से पहले राजा हो या फिर सम्राट, शासन व्यवस्था हमेशा से ही ब्राम्हण के हाथ में रही है। दूसरा, धर्म रक्षक होने की वजह से वह भूदेव बन बैठा तथा तीसरी बात शिक्षा पर एकाधिकार के चलते ज्ञान वितरण व्यवस्था पर पूरा कब्जा कर लिया। अंग्रेज ब्राह्मणों से अधिक चतुर चालाक निकले, उन्होंने भूदेवों के तीनों पैतृक अधिकारों को समाप्त कर दिया। उसके ऊपर उन्होंने ”कानून के सामने सभी बराबर है“ की परिकल्पना से ब्राह्मण और अछूत को एक ही प्लेटफोर्म पर लाकर खड़ा कर दिया। राजनीतिक आजादी के बाद भी अंग्रेजों की व्यवस्था कायम रही। सामान्य मताधिकार के साथ प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली ने ब्राह्मणों के पैतृक जन्म सिद्ध अधिकारों पर कुठाराघात किया। ज्ञान पर एकाधिकार होने के बावजूद आरक्षण व्यवस्था ने एस.सी., एस. टी. तथा भूदेवों को एक ही पद पर एक साथ बिठा दिया अतः शासन व्यवस्था पर इनका वर्चस्व तो रहा परन्तु एकाधिकार समाप्त हो गया। रही सही कसर एक ठाकुर राजा वी.पी.सिंह ने क्षत्रियों पर परशुराम द्वारा की गई ज्यादतियों का बदला शूद्रों (ओ.बी.सी.) को ढ़ाल बनाकर निकाल लिया और कर दिया मण्डल कमीशन लागू। जहॉं पहली लोकसभा में लगभग 230 (46ः) सांसद ब्राह्मण थे वहीं वर्तमान लोकसभा में 50 (9ः ) सांसद रह गए। भविष्य में भी ब्राह्मण सांसदों की संख्या 30-35 (5-6ः) रहने की पूरी संभावना है चाहे भूदेव कुछ भी कर लें। 1991 में एक और घटना घटित हुई, मा0 मनमोहन सिंह ने मिश्रित व्यवस्था (समाजवाद तथा पूॅंजीवाद का घालमेल) को पूरी तरह से पूंजीवाद में बदल दिया। चूंकि पूंजीवाद का एक ही भगवान है ”मुनाफा“ तथा उसके लिए धर्म व जाति महत्वहीन है अतः भूदेवों का आखिरी किला-पैट्रोनेज(सरपरस्ती) भी ध्वस्त हो गया। वर्तमान में उच्चतर सिवलि सर्व्रिसेज तथा जूडीशियरी को छोडकर शेष जगहों पर भूदेवों का वर्चस्व समाप्त होता जा रहा है।
भूदेव यह अच्छी तरह से जानता है कि आरक्षण व्यवस्था ने पहले एस.सी, एस.टी तथा बाद में शूद्रों (ओ.बी.सी.) में राजनीतिक एकीकरण स्थापति किया जिसकी वजह से उसका शासन व्यवस्था में वर्चस्व समाप्त हो गया। वह यह भी जानता है कि वह जो कुछ भी करता है शूद्रातिशूद्र उसका अनुकरण जरुर करते हैं। अतः भूदेव की वर्तमान में जो रणनीति है वह यह है कि शूद्रातिशूद्रों को जातियों के आधार पर बांटकर हरेक जाति को अल्पसंख्यक बनाया जाए। और फिर वो आपस में लड़ें ताकि दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर की भूमिका अर्जित कर सके यानि कि वह अपना पुनः नेतृत्व स्थापति कर सके। यह काम तभी हो सकता है जब शूद्रातिशूद्र अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करें। जाति सुदृढ होगी तो वर्ग एकता टूटेगी और यही वह चाहता है। इसलिए वह जोरशोर से अपनी जाति का सम्मेलन लगाता है ताकि दूसरी बेवकूफ जातियों को वैसे ही सम्मेलन लगाने के लिए उकसाया जा सके।
श्री मार्कण्डेय काट्जू (ब्राह्मण) प्रेस कॉंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष कहते हैं कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं। दरअसल में तो विप्रजनों का मानना है कि 92.5 प्रतिशत मूर्ख है। ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी यह सब है ताडन अधिकारी । इसके अनुसार तो 92.5 प्रतिशत मूर्ख होते हैं (85ः शूद्रातिशूद्र तथा 7.5ः उच्च वर्णीय नारियॉं)। भूदेव अपनी महासभा गठित करता है तो बात समझ में आती है परन्तु जाट, यादव, मेघवाल, वैरवा, जाटव, खटीक, बलाई, धोबी इत्यादि अपनी-अपनी महासभा क्यों गठित करते हैं यह समझ से परे है। महासभाओं के अपने कोई उद्देश्य तो होते नहीं है उद्देश्य तो उनके संस्थापकों या पदाधिकारियों के होते है। दलितों की जितनी भी जातियॉं है उन सभी की महासभाओं के उद्देश्य तकरीबन एक जैसे ही होते हैं जैसे कि समाज में अम्बेडकरी विचार धारा का प्रचार-प्रसार करना समाज का उत्थान तथा कुरीतियों से निजात दिलाना।
किसी भी महासभा ने उपर्युक्त श्रेत्रों में आज तक कोई प्रशंसनीय योगदान दिया हो ऐसा देखने को कम ही मिलता है। वृहद दलित समाज में पतन के भूतकाल में जो कारण रहे हैं वो सभी आज भी विद्यमान है। धर्मान्धता, अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, मृत्यु भोज, दहेज प्रथा, बाल-विवाह, पर्दाप्रथा, पत्नि प्रताडना, इत्यादि आज भी अपने मूर्तिरुप में मौजूद हैं। किसी भी महासभा ने सामाजिक बुराई के खिलाफ आजतक कोई आंदोलन चलाया हो ऐसा ज्ञात नहीं है।
महासभाओं के संस्थापक व पदाधिकारियों का जो दृष्टिगोचर विजन, मिशन तथा प्रोग्राम कुछ इस तरह से होता है- विजनः महासभा के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी से आरक्षित सीट के लिए टिकट हासिल करना (यहॉं राजनीतिक विचारधारा गौढ़ है टिकट महत्वपूर्ण है)। मिशनः अपने आपको अपनी जाति का सर्वमान्य नेता प्रदर्शित करके प्रतिष्ठित एक गौरवान्वित करवाना। प्रोग्राम्स भी तकरीबन एक जैसे ही रहते हैं जैसे कि-
(1) 10 तथा 12वीं कक्षा के विद्यार्थी जो अच्छे अंको से उत्तीर्ण हुए उनके लिए प्रतिभा सम्मान समारोह का आयोजन करना। जिस तरह से यह सम्मान समारोह आयोजित किये जाते उससे यह प्रतीत होता है कि संस्थापक व पदाधिकारी खुद को सम्मानित करवाने के लिए ही ऐसे प्रोग्राम लगाते हैं। प्रोग्राम के बहाने विद्यार्थियों के मॉं बाप की नजर में अपनी छवि स्थापित करने का भी मौका मिल जाता है।
(2) दूसरा प्रोग्राम बाबा साहब की जयन्ती समारोह का होता है जो अनुसूचित जाति में नेतृत्व स्थापित करने की आवश्यक शर्त है। पदाधिकारीयों को अम्बेडकर की मूर्ति तथा आमंत्रित मुख्य अतिथि एवं विशिष्ठ अतिथियों के साथ फोटो खिंचवाने का सुनहरा अवसर मिल जाता है। दूसरा मक्सद अपनी वाकपटुता कौशल को प्रदर्शित करने का अवसर भी मिल जाता। अधिकतर पदाधिकारियों को बाबा साहब के विचारों से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो बाबा साहब को आगे रखकर अपनी दुकान सुशोभित करनी है। अम्बेडकर वह महामानव था जो ताउम्र मूर्ति पूजा, व्यक्ति पूजा (हीरो वर्शिप), हिन्दुओं के धार्मिक पाखण्ड के खिलाफ लड़ता रहा। जबकि अधिकतर पदाधिकारियों के ड्रॉइंग रुमए बाबा साहब की विचार धारा के ठीक विपरीत माहौल प्रदर्शित करते हैं। इन आरक्षित कर्मचारियों के घरों में हिन्दु देवी देवता या अवतारियों की मूर्ति अथवा तश्वीर तो अवश्य मिलेगी परन्तु बाबा साहब नदारद होंगे। इनकी कथनी और करनी में कभी भरत मिलाप नहीं होता है। यह कैसी मानसिकता है जो अम्बेडकर की तो पूजा करती है परन्तु उसके विचारो से परहेज करती है।
(3) आजकल तीसरा प्रोग्राम भी देखने को मिलता है वह है अपनी जाति के युवक-युवतियों का परिचय सम्मेलन तथा सामूहिक विवाह। कभी-कभी सामूहिक भोज (गोठ) का भी आयोजन किया जाता है। यह अच्छे कामों की श्रेणी में आते हैं परन्तु इस तरह के प्रोग्राम मनुवादियों की संस्कृति की नकल करना भर है। इन प्रोग्राम्स में हमारी मूलनिवासी संस्कृति गौढ़ है।
मानव से मानव को जोड़ने वाली मूलनिवासी संस्कृति को सुदृढ़ करने के लिए जाति महासभा नहीं बल्कि अम्बेडकर महासभा गठित करें। अगर आपको अपने बान्धवों की सेवा करनी है तो सामाजिक बुराइयों के खत्म करने का संकल्प लें। परन्तु अफसोस ऐसी कोई भी महासभा दिखाई नहीं देती जिसने किभी भी बुराई के खिलाफ संघर्ष किया हो। अधिकतर संस्थापक व पदाधिकारी खुद ही इन कुरीतियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते नजर आते हैं। सभी महासभाएं वैसे तो समाज में शिक्षा के विकास की हिमायत करती है परन्तु इनके पास न तो कोई योजना और न ही कोई प्रोग्राम । क्या किसी महासभा ने दो गरीब बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठाई है? क्या किसी पदाधिकारी ने अपने बच्चों के अलावा किसी अन्य बच्चे की शिक्षा की जिम्मेदारी ली है? क्या किसी पदाधिकारी ने अपने परिवार में दहेज के खिलाफ आवाज उठाई है? अगर ऐसा किया है तो वह व्यक्ति वास्तव में महान है और अगर नहीं किया है तो ऐसे व्यक्ति का समाज के लिए विलाप घडियाली आंसुओं से अधिक कुछ नहीं है।
एक सेवारत आई.ए. एस. अधिकारी के बारे में ज्ञात हुआ है कि उसने अपने पिता के देहावसन के अवसर पर सोने की सीढ़ी (शायद 20 ग्राम की) ब्राह्मण को दान में दी। अनुमानित उद्देश्य दिवंगत आत्मा को सोने की सीढ़ी के माध्यम से सीधे स्वर्ग में भेजना। दलित महानता के ऐसे कई किस्से सुनने को मिल जाऐंगे।
बाबा साहब को गुजरे 63 वर्ष बीत गए और उनके बुद्धमय भारत के सपने को भी उतना ही वक्त हो गया। सवर्णों की बात तो दूर अनुसूचित जातियों ने इस श्रेत्र में क्या उपलब्धि हासिल की है? क्या हम घोर पाखण्डी नहीं है जो एक तरफ तो बाबा साहब के कारवॉं को आगे ले जाने की बात करते नहीं थकते हैं दूसरी तरफ जातिय महासभा व उप महासभाओं का गठन करते हुए नहीं अघाते हैं। और पाखण्ड भी पद के हिसाब से बढ़ता है जितना बडा अधिकारी उतना बडा पाखण्डी।
अन्त में महासभाओं के चुनाव के बारे में चर्चा करना आवश्यक है। चुनावों द्वारा आप अपने समाज को चुनाव प्रक्रिया का आवश्यक अनुभव प्रदान कर सकते हैं परन्तु देखने में आया है कि अगर महासभा का कोई सदस्य पदाधिकारी बन गया तो फिर वह जीवन भर उसी पद पर बने रहने के लिए जुगत बिठाते रहता है। चूॅंकि अधिकतर पदाधिकारीयों को चुनावों के विपरीत नतीजों के बारे में पूरा आभास होता है अतः वो पहला काम तो यह करते हैं कि ऐन केन प्रकरेण चुनावों को आगे खिसकाते रहते हैं। दूसरी तरफ वो अपने गॉंव वालों तथा रिश्तेदारों को अपने खर्च पर सदस्य बनाते है ताकि उनके मतों की संख्या अधिक से अधिक हो सके। तीसरा काम यह करते हैं कि संभावति विरोधियों के सदस्यों की संख्या बढ़ने नहीं देते हैं। जब वो अपनी जीत के प्रति आश्वत हो जाते हैं तब चुनावों की घोषणा करते हैं। ऐसे चुनाव ‘फ्रॉड’ की परिभाषा में आते हैं। इस तरह से प्राप्त अनुभव की बजाय तो अनुभवहीन रहना अच्छा है। विजयी पदाधिकारी हर बार यही रास्ता अपनाता है और जीतता रहता है जब तक कि कोई इस से भी बड़ा कलाकार मैदान में न आ जाए। दूसरी तरफ विरोधी धडे को अगर यह नजर आता है कि उसका अवसर कभी नहीं आने वाला है तो वह आवश्यक सुधार लाने के लिए संघर्ष करने की बजाय मैदान छोड़कर भागने में अधिक विश्वास रखता है या फिर कोई समानान्तर संगठन खड़ा कर लेता है। इस तरह से हमारी संकीर्ण जातिय मानसिकता विकसित व पल्लवित होती है और खुल जाता है अवनति का हाई वे।
एक जाति- कम से कम दो महासभा-खण्डित समाज-बिखरा हुआ दलित-अवनति की सम्पूर्ण परिकल्पना है।
खण्डित-एकता
इसमे कोई संदेह नहीं है कि आरक्षण व्यवस्था के परिणाम स्वरूप दलितों की हालत में मूलभूत परिवर्तन आए हैं । दलित मानसिकता पर एक और सकारात्मक प्रभाव पडा जिसकी वजह से सामाजिक स्तर पर दलित वर्ग के विभिन्न घटकों में भातृत्व भावना का बीजारोपड हुआ। दूसरी तरफ बाबा साहब के परिनिर्वाण के बाद कांग्रेस दलितों में यह धारणा स्थापित करने में सफल हो गई कि आरक्षण व्यवस्था उसकी देन है। आज भी बहुत से दलित बाबा साहब के संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष पद पर चुनाव को कांग्रेस का उपकार मानते हैं जबकि कांग्रेस का यह निर्णय पूर्णतया राजनितिक था। जो भी हो कांग्रेस दलितों का अपने पक्ष में राजनीतिक ध्रुवीकरण करने में सफल हो गई। इस तरह से दलितों के एक बडे हिस्से का सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक एकीकरण हो गया।
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था का जन्म 1952 में हुआ परन्तु दलितों में शिक्षा के अभाव की वजह से 70 के दशक तक कोई उपलब्धि नही मिली। 80 के दशक में योग्य एवं उपयुक्त उम्मीदवार बडी संख्या में आने लगे जिसकी वजह से आरक्षित पदों के लिए दलितों के विभिन्न घटको में प्रतिस्पर्धा होने लगी। प्रतिस्पर्धा में उन जातियों को जनसंख्या अनुपात से अधिक फायदा मिलने लगा जो किन्हीं कारणों की वजह से दलित वर्ग की अग्रिम पंक्ति में थी खासतौर से चमार उपजातियों को जिनमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार अधिक था। प्रतिस्पर्धा की वजह से जातियों में पिछले तीन दशकों में स्थापित सूक्ष्म भातृत्व भावना टूटने लगी। जिन-जिन जातियों के लोग सरकारी विभागों में अधिक संख्या में दृष्टिगोचर होने लगे उनके प्रति दूसरी जातियों का व्यवहार द्वेषपूर्ण होने लगा। इस दरार का गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों ने भी दोहन किया। क्योकि दलित वर्ग में विखणन कांग्रेस के लिए घाटे तथा गैरकांग्रसियों के लिए फायदे का सौदा था। आंध्रप्रदेश में टीडीपी-बीजेपी ने मदिगा जाति तथा पंजाब में अकाली दल बीजेपी गठवंधन ने वाल्मीकि एवं मजहबियों को कोटे के अन्दर कोटा की मांग उठाने को उकसाया। यूपी में भी इसी खेल को अन्जाम देने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने एक आयोग का गठन किया परन्तु ऐन वक्त पर तख्ता पलट गया और मायावती सरकार आ गई जिसने आयोग की रिर्पोट को खारिज कर दिया। अधिकतर राज्यों में कोटे के अन्दर कोटा की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। इस तरह के आन्दोलनों से जातियॉ तो मजबूत हो रहीं हैं परन्तु दलित एकता खण्डित हो रही है। जो आरक्षण व्यवस्था दलित वर्ग के राजनीतिक एकीकरण का आधार बन गई थी आज बदली हुई परिस्थितियों में वही आरक्षण दलितों में विखण्डन का कारण भी बनती जा रही है।
कांग्रेस ने दलितों के राजनीतिक एकीकरण की नीवं असत्य पर रखी थी। कांग्रेस तथा महात्मा गांधी कभी भी राजनीतिक आरक्षण के पक्ष में न थे। महात्मा गांधी ने दलितों के लिए पृथक मतदान के अधिकार के बदले आरक्षण को मजबूरी में मंजूर किया। इस ऐतिहासिक तथ्य को कांग्रेस ने बडी सफाई के साथ भूमिगत कर दिया। बाबा साहब की विचारधारा भी उनके परिनिर्वाण के बाद मृतप्राय हो गई थी परन्तु महाराष्ट्र सरकार ने 70 के दशक में बाबा साहब द्वारा रचित विभिन्न ग्रन्थ, लेख, निबन्ध इत्यादि को संकलित करके "राइटिंग एण्ड स्पीचेज" के नाम से ग्रन्थ प्रकाशित करवाए जिससे अम्बेडकरी विचारधारा को भारत में पुनः स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1980 तक अधिकतर ग्रन्थों का प्रकाशन हो गया था। दलितों ने अम्बेडकरी साहित्य को मार्गदाता के रूप में स्वीकार ही नही किया बल्कि उसका अध्ययन एवं विश्लेषण करके अपने जीवन में आत्मसात करने के प्रयास किए। दलितो को कांग्रेस के तथा कथित दलित प्रेम का भान हो गया अतः उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उसी समय मान्यवर कांसीराम का भारतीय राजनीति के पटल पर उदय हुआ। मा. कांसीराम ने 85 बनाम 15 का नारा दिया तथा एससी, एसटी, ओबीसी तथा धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यकां का एकीकरण करके बहुजन परिकल्पना को साकार करने के लिए प्रयास किए। भूमि तो उपजाऊ थी, उस पर अम्बेडकरी विचारधारा का बीजारोपड करना शेष था। मा. कांसीराम के अथक प्रयासों के बावजूद भी बहुजनों में, एस.सी. के अलावा, राजनीतिक एकीकरण संभव नहीं हो पाया। रही सही कसर सपा-बसपा के झगडों ने निकाल दी। मा. कांसीराम ने बहुजनों में एकता स्थापित करने के लिए जो रास्ता आपनाया वह था जातियों का राजनीतिकरण। उन्होने विभिन्न जातियों के सम्मेलन लगाए जिससे वे जातियाँ गौरवान्वित होने लगी। इस तरह के प्रोग्रामों से जातियाँ तो संगठित हुई परन्तु जाति के गौरव ने जातिवाद को सुदृढ़ बना दिया। जातियों के सशक्तीकरण से समाज विखण्डन एक आवश्यक प्रतिक्रिया बन गई। 90 के दशक में मण्डल कमीशन लागू हुआ जिसका मनुवादियों ने तीव्र विरोध किया जिसकी वजह से पहले ओबीसी का एकीकरण और फिर राजनीतिकरण हो गया। इस तरह से जातियां के राजनीतिकरण की नींव मा. कांसीराम ने डाली जिसे खाद-पानी मुहिया कराने का काम किया मण्डल कमीशन ने। परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण भारत में जातिवाद की राजनीति का वर्चस्व कायम हो गया। पहले जातिवाद की राजनीति बंद कमरों में होती थी परन्तु 90 के दशक से यह सम्मेलन, समारोह, आमसभा, टीवी स्टूडियो, इत्यादि में खुल्लम-खुल्ला होने लगी। आज इस वायरस से कोई भी अछूता नहीं रह गया है।
दलित एकता को खण्डित करने में दलित कर्मचारी वर्ग खासतौर से कुछ सिविल सर्वेन्ट्स भी अपनी नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। जिस जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल ये लोग सत्ता, समृद्धि एवं सम्मानजनक पद पाने के लिए करते हैं, पद प्राप्ति के बाद वही जाति उनके अपमान का कारण भी बन जाती है। अतः वो इससे पीछा छुडाते नजर आते हैं। वो अपनी जातिगत पहचान को नकारते हैं परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा तथा सम्मान पाने की ललक बरकरार बनी रहती है। अतः दलित कर्मचारी सम्मान पाने की मृगतृष्णा में अपने पद एवं व्यक्तिगत उपलब्धियों को ही आधार बनाता है तथा उन्हीं की चर्चा करता है जिसके फलस्वरूप वह आत्म केन्द्रित होकर ’’मै मेरा मुझे’’ रूपी कैन्सर से ग्रसित हो जाता है। यही कारण है कि ये लोग अपने सेवाकाल में समाज उत्थान की बात कम तथा आत्म-उत्थान की बात अधिक करते हैं। जो सम्मान पद की वजह से मिलता है उसे ये लोग अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों का परिणाम समझने की भूल कर बैठते हैं परन्तु सेवानिवृति के बाद उनका आत्मचित्रण धराशाही हो जाता है। पद के आधार पर मिला सम्मान इनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाता है परन्तु अब यह अपनी जाति के अलावा दूसरे समाजों से मिलता नहीं है। इसमें कोई शक नहीं है कि सिविल सर्वेन्ट्स अपनी जाति के लिए एक अनुकरणीय रोल मॉडल हैं। 50 व 60 के दशकों में चयनित कर्मचारियों का 90 के दशक में सेवानिवृति होना प्रारम्भ हो गया अतः सेवानिवृत लोग अपनी जातिय बन्धुओं के साथ रहने लगे। ये लोग रोल मॉडल के साथ-साथ सामर्थवान भी हैं। खुद को गौरवान्वित एवं सम्मानित करने के लिए अधिकतर सेवानिवृत अधिकारी अपनी-अपनी जातियों को ही संगठित करके महासभाओं का गठन करने लग गए। ये लोग समाजिक कार्या के लिए दान भी देते हैं तो भी अपनी-अपनी जातियों के संगठनो को ही देते है।
राजस्थान में तकरीबन हर दलित जाति की अपनी महासभा है। प्रत्येक जाति महासभा के सदस्यों की संख्या कुछ सैकडों में तथा अधिक से अधिक कुछ हजारों में होगी परन्तु उनका नाम होगा- अखिल भारतीय (जाति नाम) महासभा। अधिकतर महासभाओ में अध्यक्ष, सचिव तथा अन्य पदाधिकारी आरक्षण से लाभान्वित सेवानिवृत कर्मचारी या राजनेता ही मिलेंगे। कुछेक महासभाओं के अध्यक्ष सेवारत् या सेवानिवृत आई.ए.एस./आर.ए.एस. अधिकारी भी हैं। जाति महासभा के सदस्य एवं पदाधिकारी उसी जाति विशेष से आते हैं अतः जाति की संकीर्ण मानसिकता के चलते ये लोग अन्य जाति या वृहद दलित समाज के उत्थान की बात ही नहीं करते। दलित एकता का बंटाधार जितना इन महासभाओं ने किया है शायद ही उतना किसी अन्य संगठन ने किया होगा।
सरकारी नौकरी लगजाने के बाद कर्मचारी वर्ग ने अपने आपको एक और गुण से भूषित कर लिया है जिसे समाजशास्त्री श्रीनिवासन ’’संस्कृतिकरण (संस्कृताइजेशन)’’ नाम से सम्बोधित करता है। दलित वर्ग का यह धडा अपने आपको हिन्दु उच्च वर्ग में स्वीकृति के योग्य बनाने के लिए उनका अन्धानुकरण करता है तथा चमचागीरी की हद तक अनुशरण करने में अपनी शान समझता हैं। जन्म, (मुख्यतय पुत्ररत्न की प्राप्ति पर), शादी तथा मृत्यु के अवसरों पर समारोह आयोजित करने में नकल करता है। उच्च वर्ग की ही तरह धार्मिक चिन्हों को धारण करता हैं। देवी जागरण, मृत्युभोज, भण्डारा, यज्ञ, व्रत, पूजा-पाठ, इत्यादि जैसे कर्मकाण्डो के माध्यम से ’’शो ऑफ’’ करना अपना फर्ज समझता है। यह वर्ग उच्च वर्ग की तरह अपने पूर्वजों का देवीकरण करने में अग्रणी है। ढ़ूंढ-ढूंढ कर देवी-देवताओं को बाहर निकाला जा रहा है, उनके तथा-कथित देवत्व को महिमा मण्डित किया जा रहा है। राजस्थान में रामदेवरा इसी धर्मान्धता का परिणाम है। यूपी तथा राजस्थान बोर्डर जिलों में जाटवों (एक दलित जाति) ने अपने लिए भोले बाबा की खोज कर ली है जिसे पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी ’’विश्व हरि’’ की संज्ञा दी गई है। जाटवों में भोले बाबा का इतना प्रचार-प्रसार है कि करोड़ों रूपये खर्च करके लाखों की संख्या में दलित धर्म लाभ कमाने के लिए समारोह आयोजित करते हैं। मेघवालों ने अपनी उत्पत्ति के लिए ब्रह्मा की संतान मेघऋषि नामक मिथक को गढ़ दिया है। और इस पथभ्रष्टता के लिए दलित वर्ग का तथा-कथित ’’एलिट कर्मचारी’’ वर्ग जिम्मेदार है क्योंकि सामर्थ तो इनके पास ही है। आम दलित कर्मकाण्ड कराने तथा धार्मिक पुन्य कमाने की बात तो दूर अपने परिवार को दो वक्त भरपेट खाना भी मुहिया नहीं करा सकता है। आज कर्मचारी वर्ग का सर्वाधिक ब्राह्मणीकरण हो चुका है। जाति की संकीर्ण मानसिकता के सामने दलित समाज की परिकल्पना दम तोड रही है। सवाल है- हम कब जातिय मानसिकता से ऊपर उठकर दलित समाज के लिए सोचना प्रारम्भ करेंगे?
क्या दलित एकता का सपना कभी साकार होगा...??
भारतीय दलित समाज हजारों उप-जातियों में विभाजित है जिनमें एकता की गंभीर समस्या है। अन्तर्जातीय ईर्ष्या, द्वेष, विरोध तथा दुश्मनी तो आम बात है परन्तु एक ही जाति के सदस्य एक चौपाल पर बैढ़कर शांति से किसी मुद्दे पर चर्चा करते हुए भी कम नजर आते हैं। हमारे सामाजिक समारोह, सभा, पंचायत या फिर शादी-व्याह बिना किसी लडाई-झगडे या उत्पात के सम्पन्न हो जाएं तो एक महान उपलब्धि ही समझिए। ये संस्कार सिर्फ ग्रामीणों में ही नही हमारे तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग में भी पाए जाते हैं। हमारे अन्दर मतभेदों के साथ-साथ मनभेद कभी न पटने वाली खाई बन चुके हैं। हम और कोई काम करें न करें परन्तु आपसी रंजिश तथा दुश्मनी पूरी ईमानदारी के साथ निभाते हैं। हमें अपने भाई को 5 रुपये का नुकसान पहुचाने के लिए अपना 50 रुपये का नुकसान खुशी-खुशी मंजूर है।
दलित एकता सम्बन्धी मुद्दे को फोकस में लाने के लिए मैं यहाँ पर अपनी पंचायत से सम्बन्धित कुछ पहलुओं पर चर्चा करना चाहूँगा। हमारी पंचायत में मुख्यतया जाटव (एस.सी), ब्राह्नाण, गुर्जर, जाट तथा छोटी-छोटी संख्या में अन्य जातियाँ निवास करती हैं जिनकी कुल मतदाता संख्या तकरीवन 2500 है जिसमें जाटवों के मत लगभग 1300 हैं। अंकगणित के हिसाब से इस पंचायत का सरपंच सर्वदा जाटव ही होना चाहिए जब तक कि यह पंचायत ओबीसी के लिए आरक्षित न हो जाए। परन्तु ऐसा होता नहीं है। यहाँ दलित सिर्फ एस.सी. के लिए आरक्षित सीट होने पर ही चुनाव लडते हैं जनरल पर कभी नहीं लडते। और जब यह पंचायत एस.सी. के लिए आरक्षित होती है तो जाटवों में से कम से कम तीन तथा अन्य एस.सी. का एक उम्मीदवार चुनाव अवश्य लडता है। देखने में तो इनमें से एक जाटव ब्राह्नाण समर्थित, दूसरा गुर्जर तथा तीसरा जाट समर्थित उम्मीदवार होगा। परन्तु अन्दरूनी तौर पर सभी उच्च जातियाँ एस. सी. के गैर जाटव को ही वोट देती है। इनकी रणनीति साफ है बहुसंख्यक जाटवों में एकता स्थापित ही नहीं होने देने की है वरना ये लोग वर्चस्व स्थापित कर लेंगे। पिछले 63 वर्ष का इतिहास सामने है तथा मजे की बात यह है कि हर जाटव इस रणनीति को जानता है और समझता भी है परन्तु फिर भी वो आत्महत्या करने पर आमदा हैं।
दूसरी घटना खुद मुझसे सम्बन्धित है जो तकरीबन 10 साल पुरानी है। मैं तकरीबन पिछले 30 वर्षो से बाहर ही रह रहा हूँ। हमारे पैतृक गाँव के पास एक गांव है जिसमें लगभग 60 प्रतिशत ब्राह्मण तथा शेष जाटव निवास करते हैं। जाटवों को पानी की भारी समस्या थी तो कुछ बुजुर्गां ने मेरे परिवार से मदद मांगी। मैंने व्यक्तिगत स्तर पर डीप बोर लगाने का आश्वासन दिया। हमारे क्षेत्र में पानी दो स्तरों पर मिलता है, एक 60 फीट गहराई पर तो दूसरा 250-300 फीट गहराई पर। 60 फीट वाला बोर साल दो साल में खारी हो जाता है। अतः हमने फैसला लिया कि बोर 300 फीट पर ही लगाया जाएगा ताकि जाटव बन्धुओं की पानी की समस्या दीर्धकाल के लिए समाप्त हो जाए।
पहले तो सार्वजनिक जगह ही नहीं मिली पर जब एक बन्धु ने 200 वर्गगज जमीन दान में दी तब जाकर काम शुरू किया गया। जब बोर की तकरीबन 60-70 फीट खुदाई हो गई तभी जाटवों के दूसरे गुट ने ऐसे हालात बना दिए कि आगे बोर खोदना मुश्किल हो गया। मालिक बोर खुदाई मशीन को लेकर रातों रात भाग गया और हमारा 50,000 रूपयें का बिना कोई उद्देश्य हासिल किए, नुकसान हो गया। जब मैने अपने स्तर पर इसकी जांच की तो मालुम चला कि इस गांव के जाटव एक ब्राह्मण के डीप बोर से पानी लाते है। ब्रह्मदेव जाटव महिलाओं से जायज और नाजायज काम करवाता था। वह नहीं चाहता था कि जाटव स्वतंत्र हों तथा मालिक सेवक का रिश्ता समाप्त हो। और इस व्यवस्था को जारी रखने में जाटव ही उसका साथ दे रहें हैं। हमें ह्नदय विदारक पीडा इस बात की नहीं है कि दबंग जातियाँ हमारे साथ क्या कूटनीतिक चालें चलती है बल्कि हमें तकलीफ इस बात की है कि उन कूटनीतिक चालों के बारे में जानते हुए भी हम आत्मघाती क्रियाकलाप करते रहते हैं।
डा. अम्बेडकर मेमोरियल वेल्फेयर सोसायटी, जयपुर राजस्थान की अनुसूचित जाति वर्ग की सर्वांंच्च एवं सर्वमान्य संस्था है इसके अधिकतर सदस्य सरकारी कर्मचारी हैं। इस संस्था की 28 जुलाई 2013 को जी.बी.एम. सम्पन्न हुई। जी.बी.एम. के दरम्यान ही दो गुटों में तू-तू मैं-मैं हो गई। शुक्र है कि ये भाई हमारी चिरस्थाई ब्रान्ड ’’जूतम-जात’’ का परिचय देने से बाल-बाल बच गए। आज अगर बाबा साहब जिन्दा होते तो देखते कि उनके भक्त ही उनकी तीसरी कमान्डमेन्ट ’’संगठित रहो’’ की किस तरह से धज्जियाँ उडा रहे हैं। राजस्थान में हमारी फूट इतनी व्यापक है कि उच्च जातियों ने उसके लिए मुहावरे गढ़ रखे है जैसे कि "आठ चमार और नौ हुक्का, फिर भी डुक्कम डुक्का"।
दलितों में एकता अल्पकाल में तो संभव नजर नहीं आती परन्तु मध्यकाल से दीर्धकाल में कुछ हासिल किया जा सकता है। मेरा मानना है कि इसके दो रास्ते हैं। अगर हम हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में ही रहेंगे तो हमारा सामाजिक स्टेट्स पूर्व निर्धारित है- निम्नतम स्तर। इसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है चाहे आप वैज्ञानिक हो या फिर करोडपति, हमारी सामाजिक हैसियत दलित की ही रहेगी। अतः पहला रास्ता बौद्ध धर्म में परिवर्तन का है। बौद्ध धर्म ही क्यों, आज इस बात पर बहस की गुंजाइस कम है क्योंकि यही वैज्ञानिक, समतामूलक धर्म है तथा हमारी संस्कृति से मेल खाता है। यहाँ पर एक चेतावनी पर गौर करना आवश्यक है। बौद्ध बनने के लिए हमको अपनी जातिगत पहचान को तिलांजलि देनी होगी।अगर हम अपनी जाति को साथ लेकर धर्म परिवर्तित हुए तो हमारा भी वही हाल होगा जो ईसाईयों तथा मुसलमानों का हुआ है। ये दोनां अपने आप को समतावादी धर्म कहने वाले जातियों में बंट गए हैं। इनकी एकता भी मात्र हिन्दुओं के ही सामने दिखाई देती है वरना ये तो खुद ही बहुत बिखरेंं हुए हैं।
धर्म परिवर्तन के सवाल पर भी दलित समाज अभी तक एक मत नहीं हो पाया है। हमारे मसीहा डा. अम्बेडकर ने 1956 में इसके लिए आह्नवान किया था परन्तु 57 वर्ष गुजरने के बाद भी उनका सपना वहीं खडा नजर आता है। उन्होंने कहा था कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण अखण्ड नहीं रह सकता है उसे खण्डित होना ही है फिर भी हम जातियों से चिपके हुए है। यही नहीं अपनी-अपनी जातियों को गौरवान्वित करने के लिए झूठे सच्चे इतिहास गढ़ रहे हैं, नए-नए मिथकों को सच्चाई का जामा पहना रहें हैं। हम अपनी जाति को शेष जातियों से श्रेष्ठ साबित करने की होड में ऊर्जा एवं धन खर्च कर रहे हैं। जबकि नरश्रेष्ठ, संसार की सम्पत्तियों के मालिक, धर्म को धारण करने वाला सर्वज्ञानी, सभी वर्णो के स्वामी ब्राह्मण सभी अनुसूचित जातियों को चमार कह कर ही बुलाता है। जितना उसे कुत्ते-बिल्ली से प्यार है उससे कई हजार गुना चमार से नफरत है, फिर भी हमें उसके व्यवहार के प्रति कतई मलाल नहीं है।
दूसरा रास्ता अनुसूचित जातियों में आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार। अल्पकाल में हमारी प्राथमिकता मात्र रोटी की होनी चाहिए। बेटी की बात करेंगे तो सभी जातियाँ मैदान छोडकर भाग जाएंगी। सर्वप्रथम हमको अपनी कॉमन समस्याओं एवं हितों को पहचानना होगा। यह प्रमाणित आर्थिक शास्त्र का सिद्धान्त है कि कॉमन समस्याओं के कॉमन समाधान होते हैं। अगर रोजगार हमारी कॉमन समस्या है तो सभी जातियों को इसके निवारण के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे तथा अपने हितों की रक्षा के लिए सामूहिक संधर्ष करने होंगे। इन आंदोलनों/संधर्षों का नेतृत्व भी सामूहिक होना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि शुरू-शुरू में तो सामूहिक नेतृत्व ’’अनमैनेजेबल ककौफोनी ’’ ही होगा परन्तु संगठित आंदोलन के लिए यह आवश्यक शर्त है क्योकि इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है । जब सामूहिक नेतृत्व कॉमन समस्याओं पर चर्चा, बहस करेगा, समाधान के विकल्प तलाशेगा, चयनित विकल्प पर कार्यक्रम बनाएगा, उस कार्यक्रम पर अमल के लिए व्यक्तियों का चुनाव होगा तथा आंदोलन के क्रियान्वयन के लिए सामूहिक प्रयास होगा तो निश्चित रूप से विभिन्न जातियों में सामाजिक संवाद बढ़ेगा, भातृत्व भावना का विकास होगा तथा आपसी विश्वास कायम होगा। संगठित समाज गठन की प्रक्रिया में आवेग लाने तथा मजबूती प्रदान करने के लिए समय-समय पर सामूहिक भोज का आयोजन करना अति आवश्यक होगा। यह बात प्रमाणित है कि जो काम सामाजिक रोल मॉडल्स करते है उसका समाज के बहुसंख्यक लोग अनुशरण करते हैं। इस तरह से विभिन्न जातियों में समरसता का भाव पैदा होगा और जब यह हो गया तो फिर हमें संगठित समाज बनने से कोई नहीं रोक सकता।और इसी प्रक्रिया से उभरेगा हमारा सर्वमान्य नेतृत्व । संगठन स्थापित करने की प्रक्रिया में सामूहिक नेतृत्व प्रदान करना सर्वाधिक कठिन कार्य है । सैद्धान्तिक दृष्टि से दलित समाज में वाल्मीकियों की स्थिति हर लिहाज से निम्नतम है। सभी गैर वाल्मीकियों को आगे आकर, सरपरस्ती अथवा सहानुभूति के साथ नहीं बल्कि समानता के साथ बान्धव का सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। जिस तरह से हम घर के सबसे कमजोर सदस्य के साथ परिवार भाव से व्यवहार करते है उसी तरह से वाल्मीकि भाई हमारे भातृत्व भाव के पात्र हैं। मेरा मानना है कि सभी जातियों के अपमानजनक व्यवहार एवं अत्याचारों ने उन्हें एक निडर एवं जुझारू कौम में तब्दील कर दिया है। अगर वाल्मीकि एवं गैर वाल्मीकि एक साथ हो गए तो यह सामाजिक क्रान्ति से कम उपलब्धि नहीं होगी।
गैर वाल्मीकियों को यह समझने की आवश्यकता है कि हम सभी 99.9 प्रतिशत समान हैं। हमारी असमानताएं मात्र एक प्रतिशत के दसवे हिस्से के बराबर है। दूसरे शब्दों में 1000 में से 999 समानताएं है तथा मात्र एक असमनता है। अतः हमारे पास समानताओं का जलसा मनाने की तथा असमानताओं को तिलांजलि देने की हर वजह मौजूद है। दीर्धकाल तक इस प्रक्रिया पर कार्य करते-करते एक वक्त आयेगा जब चमार अपनी बेटी वाल्मीकि को तथा वाल्मीकि अपनी बेटी चमार को देने में गर्व करेगा। अर्थात जिस दिन से हम अनूसूचित जाति वर्ग पर गर्व करना शुरू कर देंगे उसी दिन से हमारे सभी सपने साकार होने शुरू हो जाएंगे।
-अभिजीत कुमार
से.नि.IRS
फोटों गुगल से साभार