आर्य समाज आंदोलन का दलितोत्थान में काफी योगदान रहा है। आज भी हमारे कई दलित भाई अपने आप को आर्य समाजी कहलवाने में गर्व अनुभव करते हैं। मेरे अपने भी कुछ अनुभव आर्य समाज के साथ रहे हैं जो मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
1.आर्य समाज का मूल आधार वेदों में विश्ववास है। आर्य समाज का तीसरा नियम है- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है।
जब तक मैंने वेद नहीं पढ़े थे, तब तक मैं भी इसी प्रकार मानता था। परन्तु कुछ संदर्भ देखने बाबत एक बार वेद देखने पड़े। जब वेद देखे, तो मैंने पाया कि जैसा वेदों के बारे में प्रचार किया जाता है, वैसा है नहीं। वेदों में आर्यां और अनार्यों के युद्ध के प्रसंग भरे पड़े हैं, जो कि आर्यों का इतिहास है। आर्य, असुरों पर विजय पाने के लिये, उनकी पराजय की कामना के लिये, स्वयं को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिये, धन-सम्पत्ति की याचना के लिये और विभिन्न प्रयोजन सिद्ध करने के लिये (यहाँ तक कि इंद्राणी द्वारा सौतन को भगाने और नीचा दिखाने के लिये भी) जो प्रार्थनायें करते थे, वे वेदों में मिली। मुझे इनमें ज्ञान-विज्ञान, वास्तुकला, चिकित्सा आदि का कोई प्रसंग नही मिला। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने पूरे वेद पढ़ लिये हैं, परन्तु जितना मैंनें पढ़ा, उनका ज्ञान-विज्ञान से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। मुझे वेदों में सुई बनाने का मंत्र तक नहीं मिला, वायुयान की क्या कहें ? कई स्थानों पर तो वेदों में भारी अश्लिलति दी हुई है। भांग, शराब आदि के सेवन का विवरण मिलता है (जिज्ञासु पाठक देखें- ऋग्वेद प्रथम मण्डल, 28 वां सूक्त, 7 वां मंत्र, 1। 27। 7, 9। 66। 9, 9। 66। 16, 8 । 2। 11, 4 । 58। 9, 1 । 28। 2, और अथर्ववेद 11। 3। 5, 9। 18। 7, 9। 66। 16,)। इनके अलावा ऋग्वेद के निम्न सन्दर्भ भी देखने योग्य हैं- 9। 68। 7, 9। 77। 7, 7। 18। 7, 18। 26। 45, 8। 11।17, 9। 56।3, 9। 86।16, 9। 10।14, 9। 32।5, 9। 112 ।4, 9। 101।14, 10। 30। 6, 7। 33। 12, 1। 45। 3, 4। 42। 8, 2। 29। 1, 7। 40। 2, 10। 85। 30, 10। 85। 34, 10। 85। 37, 9। 1। 34, 10। 86।15, 10। 86। 17, 10। 145।1-6, 10। 160।1-4, 1। 126।7, 10। 10।1, 10। 61।5-6, 9। 10।12, अथर्ववेद 6। 72। 3 । यम-यमी का संवाद जो कि ऋग्वेद के दसवें मण्डल का दसवां सूक्त है, पूरा नियोग प्रथा पर है, जो कि सभ्य समाजों में वर्जित रही है। इनके अलावा अण्डर लाइन किया हुआ सन्दर्भ इंद्राणी द्वारा अपनी सौत को मंत्रों द्वारा वश में करने का विवरण प्रस्तुत करता है।
क्या विश्व के प्रथम ग्रन्थ कहलाने का दावा करने वाले वेदों में ये सब बातें शोभा देती हैं ? मैंने तो सम्पूर्ण वेद नहीं पढ़े, अन्यथा और भी न जाने क्या- क्या मिलता! जो व्यक्ति वेदों की प्रशंसा करते नहीं थकते, उनमें अधिकांशतः सुनी-सुनाई बातें कहने वाले होते हैं। उनसे मेरा निवेदन है कि मात्र एक बार आलोचक की दृष्टि से वेदों को पढ़कर तो देखें! आज के लगभग 25-30 साल पहले प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका सरिता ’वेदों में क्या है’ नामक धारावाहिक छापा करती थी। प्रकाशक ने वेदों की खरी-खरी छाप दी। तब आर्य समाज ने सरिता की प्रतियां जलाई थी। मगर प्रतियां जलाने से सच्चाई छिप जाती है क्या ? जैसा कि आर्य समाज का गौरवमयी इतिहास रहा है, उसे देखते हुए शास्त्रार्थ करना चाहिये था।
इसके अलावा कई महानुभावों का कहना है कि वेदों में जो दिया हुआ है, उसका कुछ अन्य सूक्ष्म गूढ़ संकेतार्थ निकलता है। मेरा प्रश्न यह है कि वेदों के रचयिता को ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी थी कि सीधी सी बात को सीधी भाषा में कहने के बजाय सूक्ष्म गूढ़ सांकेतिक भाषा में कहा? उदाहरणार्थ-ऋग्वेद नवम् मण्डल सूक्त 113 के मंत्र 4 का तो अर्थ तक नहीं मिलता है। पदार्थ (पदअर्थ) में जो दिया हुआ है, वह मंत्र से समानता नहीं रखता है। मेरा मानना यह है कि पाठ्य-सामग्री या ज्ञान-विज्ञान ऐसा होना चाहिये, जो आसानी से समझ में आ जाये और जिसका सबके लिये ही एक सामान्य अर्थ हो। पाठ्य-वस्तु को अत्यन्त जटिल बनाना और फिर उसे महिमा मण्डित कर जन-साधारण को समझाने के लिये विशेषज्ञों की आवश्यकता महसूस कराना विद्वानों व ज्ञानियों का काम नहीं, वरन् कुटिलों का कार्य है, जिसके सहारे उनकी पीढ़ियों तक की रोजी-रोटी का बन्दोबस्त हो जाता है। यही कारण है कि हजारों साल पुराने बताये जाने वाले वेद जन मानस में कबीर, नानक, दादू आदि की वाणियों से भी कम जाने व माने जाते हैं।
2. कहने को तो आर्य समाज ’’कृण्वन्तो विष्वमाय्यर्म’’ का नारा बुलन्द करता है परन्तु हकीकत में ऐसा है नहीं। शुरूआत से अब तक का इतिहास देख लीजिये- ’आर्य’ सरनेम कुल आर्य समाजियों के दस प्रतिशत से भी कम लोगों ने लगाया है। और जिन्होनें लगाया है, उनमें भी नब्बे प्रतिशत लोग दलित वर्ग (अनु.जाति, अनु.जन जाति एवं पिछड़ा वर्ग) से रहे हैं। स्वामी दयानन्द जी का उद्देश्य कितना भी पवित्र रहा हो, लेकिन आर्य समाज में घुसे-बैठे सवर्णों ने दलितों में ही ऊँच- नीच पैदा कर दी (दलितों में ब्राह्मण पैदा कर दिये), साथ ही स्वयं वैसे के वैसे बने रहे। आज भी अधिकाशं सवर्ण आर्यसमाजी शर्मा, मिश्रा, सामवेदी, सिंह, विजय, अग्रवाल, कसेरा, मोदी आदि लगाते मिल जायेंगे, जबकि अनु.जाति, अनु.जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग का नया-नया सदस्य बना व्यक्ति भी आर्य लगाने की कोशिश करता है। मतलब साफ है-सवर्ण आर्य समाजियों का स्वजातीय अभिमान आज भी आर्य समाजी होने से अधिक उच्च है। जो लोग पीढ़ियों से आर्य समाजी रहे हैं, लेकिन अपने स्वजातीय अभिमान के कारण आज भी आर्य नहीं लगाते, तो फिर किनको आर्य बनायेंगे ? दलित वर्ग ही क्यों पिछलग्गू बन रहा है ?
3. वर्तमान में आर्य का अर्थ ही हिन्दू हो गया है। आर्य समाजी सीधे-सीधे हिन्दू संगठनों की गोद में जा बैठे हैं। कई सज्जन समान रूप से दोनों में आते-जाते हैं। उन्हें हिन्दू धर्म ग्रन्थों से, मंदिरों से, देवी-देवताओं और व्रत त्योहारों से कोई परेशानी नहीं है, तो आर्य समाज के प्रवचनों, विचारों आदि से भी कोई दिक्कत नहीं है। दोनों समान रूप से साधे जा रहे हैं। ऐसे में स्वामीजी द्वारा चलाये गये पाखण्ड-खण्डन और मूर्तिपूजा विरोधी अभियान का इनके लिये कोई औचित्य नही रह जाता है। अतः यहाँ पर आर्य समाज आंदोलन अपने मूल पथ से विचलित हो गया है। धडल्ले से आर्य समाज तथा हिन्दूवादी पत्र-पत्रिकाओं में ’हिन्दू (आर्य)’ छप रहा है और आर्य समाज मौन है! क्या इसी आधार पर स्वामी जी के समय के मुस्लिम व ईसाई धर्मावलम्बी उनके प्रशंसक थे ?
4. आरक्षण के कारण ही हम अर्थात् इस देश के मूल निवासी, अनु.जाति, अनु.जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग के लोग आगे बढ़े हैं। आरक्षण नहीं होता तो आज हम अपनी वर्तमान स्थिति से बहुत पीछे होते। आज आर्य समाज के दिग्गजों और उच्च पदाधिकारियों से प्रश्नन किया जाए कि आर्यसमाज अनु.जाति, अनु.जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के पक्ष में है या नहीं, तो वे अन्य हिन्दू नेताओं की तरह बात को घुमाने लग जायेंगे, आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी करेंगे या जिन परिवारों को एक बार आरक्षण मिल चुका है उनके लिये आरक्षण बंद करने की बात कहेंगे। पर स्पष्ट रूप से आरक्षण के वर्तमान स्वरूप का समर्थन नहीं करेंगे।
5.आर्य समाजियों की नजर में स्वामी जी ने जो नियम बनाये वे अकाट्य हैं, परन्तु इन नियमों पर चिन्तन -मनन करने की आवश्यकता है। परिवर्तन ही जीवन है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है........... जबकि वेदों के बारे में मैं पहले बता चुका हूँ। सप्ताह में सातों दिन चाहे सुबह-शाम हवन कर लें, मंत्र पढ़ लें, परन्तु जब तक उनका अर्थ समझ कर मनन नहीं करेंगें तब तक यह सब मात्र खोखली औपचारिकता के अलावा और कुछ नहीं है। अतः आर्य समाज के ही चौथे नियम के अनुसार सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
6. आर्य समाज में क्रियात्मकता का अभाव है। स्वामीजी ने राजनीति से कभी परहेज नहीं किया, वरन सत्यार्थप्रकाश में कई स्थानों पर राजाओं को उनके कर्तव्यों व अधिकारों से आगाह किया है। लेकिन उनके उत्तराधिकारी आर्यसमाजी आज तक आर्य समाज के बैनर तले कभी चुनाव नहीं लड़े। वे अन्य पार्टियों के बैनर तले जरूर लडे़। जबकि डॉ. हेडगेवार द्वारा आर्यसमाज से 50 साल बाद स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा अपने आप को सामाजिक संगठन बताता रहा है, जिसके विभिन्न नामों से लगभग 125 संगठन चलते हैं, इसने भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई है और दो बार केंद्र में तथा कई बार अनेक राज्यों में सत्ता स्थापित की है।
निष्कर्ष यह है कि हमारे दलित बन्धु किसी भी संगठन में जायें, परन्तु अपने विवेक का इसतेमाल अवष्य करें। अपने धन, समय और श्रम का इसतेमाल ऐसे संगठनों को खाद, बीज और पानी देने में नहीं करें जो हमारे लिये भविष्य में विषबेल बन जायें। दुर्भाग्य से बाबा साहेब का कहा दलितों ने न तब माना था जब वे जीवित थे, और न अब मान रहे हैं जब वे दिवंगत हैं। इसीलिये आज भी दलितों के हाथ लेने वाली स्थिति में ही हैं, देने वाली में नहीं।
आर्य समाज बनाम दलित समाज